अंधविश्वास में डूबती दुनिया या क्या अंधविश्वास का कारण है अशिक्षा...
'अंधविश्वास' अंधविश्वास का अर्थ है, किसी बात की सत्यता को जाने बगैर उस पर विश्वास करना अर्थात किसी पर आंख बंद करके विश्वास कर लेना । अंधविश्वास शब्द के अंदर ही विश्वास शब्द छिपा है परंतु दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है । विश्वास सत्यता पर निर्भर करता है परंतु अंधविश्वास के लिए सत्यता या तार्किकता का होना आवश्यक नही है । कहते हैं कि विश्वास पर तो दुनिया कायम है और यही सत्य है पर अंधविश्वास यह भी जीवन का सबसे कड़वा सच है, आजकल लोग विश्वास में नहीं अंधविश्वास में जीते हैं । अंधविश्वास एक ऐसा विश्वास है जिसका कोई उचित कारण नहीं होता, अंधविश्वास की परंपरा सदियों से चली आ रही है और यह केवल भारत में ही नहीं बल्कि हर देश में प्रचलित है, सभी लोग किसी न किसी तरह के अंधविश्वास में जीते हैं, कुछ अंधविश्वास धर्म के आधार पर तो कुछ जाति के आधार पर है जैसे जैसे- आंख फड़कना अशुभ होता है, बिल्ली रास्ता काटे तो अशुभ होता है, हथेली खुजली करें तो अशुभ होता है, भूत- प्रेत, इत्यादि । अगर अंधविश्वास गिनने बैठे तो शायद साल बीत जाए पर अंधविश्वास की गिनती कम नहीं होगी । इन्हीं तरह के ना जाने कितने अंधविश्वास है इस समाज में, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो. हरबंस मुखिया का कहना है कि अक्सर यह मान लिया जाता है कि अशिक्षित लोग अंधविश्वासों में ज्यादा यकीन करते हैं, जबकि शिक्षित लोग अधिक विवेकपूर्ण और तर्कसंगत होते हैं, यह एक गुमराह करने की साजिश है । अर्थात यह केवल आधा सच है, जबकि पूरा सच यह है कि शिक्षित लोगों में भी अंधविश्वास अधिकतर पाए जाते हैं । जब एक शिक्षित व्यक्ति अपने कार्यों में बार-बार असफल होता है और सफलता का कोई राह नहीं दिखता तो वह भी अंधविश्वास में जीने लगता है और अगर वह सफल हो जाता है तो उसके मन मस्तिष्क में भी अंधविश्वास समा जाता है और वो उसे ही उचित मान बैठता है । जबकि सत्य तो यह है कि बार-बार असफलता से उसे निराशा हो गई थी और अबकी बार उसने निराशा को छोड़ अपनी आशा/ उम्मीद को दुगुना कर कार्य किया और वह सफल हो गया, इसमें कोई चमत्कार नहीं था, परंतु वह यह मानने को तैयार ही नहीं होता । ऐसे ही धीरे-धीरे अंधविश्वास पैर पसारता जाता है और आमजन इसमें डूबते जाते हैं बिना कुछ सोचे समझे । जैसे कोई इंसान बहुत दिनों से बीमारी से ग्रस्त है कितने डॉक्टरों के पास, मंदिर गया- मन्नत मांगी पर ठीक नहीं हुआ अंत में किसी ने कहा पीर जाकर चादर चढ़ा दो देखना ठीक हो जाओगे, उसने वैसा ही किया और ठीक हो गया , तो उसने ना डॉक्टर का आभार किया, ना परिवार का, ना मन्नतो का बल्कि पीर बाबा का चमत्कार मान बैठा, यह अंधविश्वास नहीं है तो और क्या है? जिन डॉक्टरों ने उसे ठीक करने के लिए अपनी पूरी जान लगा दी वह उसका आभार नहीं माना । अपने धर्म, अपने रिवाज, अपने परंपरा को निभाना गलत नहीं है और ना ही अपने ईश्वर पर विश्वास करना गलत है ,मगर विश्वास और अंधविश्वास में फर्क करना बहुत जरूरी है । एक मां जब बच्चे को गोद में उछालती है तो बच्चा खिलखिला उठता है क्योंकि उसे अपनी मां पर विश्वास है वह उस गिरने नहीं देंगी मगर आप अपने हाथों अपना सर काट दे और सोचे की ईश्वर आपको मरने नहीं देंगे, वह बचा लेंगे आपको उन पर विश्वास है, तो यह गलत है क्योंकि यहां आपको ईश्वर पर विश्वास नहीं अंधविश्वास है । गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि 'कर्म करो तो फल मिलेगा' अगर आप बचने की कोशिश करो तभी आप बचोगे अन्यथा आपको कोई नहीं बचा सकता क्योंकि भगवान कहीं और नहीं है की वह आए, वह तो आपके भीतर है आप कोशिश करोगे तो अवश्य दिख जाएंगे । आप बेवजह इधर-उधर ईश्वर को ढूंढते हो, सोचते हो तीर्थ पर जाने से ईश्वर मिलेंगे तो आप गलत हो, कबीर दास जी ने भी दोहे में लिखा है “पत्थर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहाड़! घर की चाकी कोई ना पूजे, जाको पीस खाए संसार!” इस दोहे में कबीर जी ने स्पष्ट बताया है लोग ईश्वर को पाने के लिए पत्थर इत्यादि की पूजा करते हैं , उससे भगवान मिलते तो वे पहाड़ पूजते, उसकी जगह कोई घर की चक्की की पूजा नहीं करते जिससे अन्न पीसकर लोग पेट भरते हैं । पुराने समय में ज्ञानीयो तथा मुनियों के अनुसार माना जाता है कि भगवान का निवास हमारे शरीर में होता है, हमें कहीं ढूंढने की जरूरत नहीं है हमारे अंदर ही आत्मा और परमात्मा दोनों का वास होता है बस अंदर झांकने की जरूरत है, पहचानने की जरूरत है, अपने आपको जानने ,पहचानने के लिए और ईश्वर को पाने के लिए शिक्षा ही एकमात्र साधन है अर्थात शिक्षा वह रोशनी है जो ना केवल आपके जीवन में उजाला लाती है बल्कि सारे अंधकार, अंधविश्वास और भय को आपके मन-मस्तिष्क से निकाल देती है । माना कि कभी-कभी शिक्षित व्यक्ति भी अंधविश्वासी हो जाता है पर अंधविश्वास को मिटाने के लिए केवल शिक्षा ही उपयोगी है, शिक्षा से ही मनुष्य की आंतरिक शक्तियां जागरूक होती है ,जैसे स्वामी विवेकानंद जी वह ना केवल खुद शिक्षित हुए बल्कि उन्होंने अपने समाज में भी शिक्षा और ज्ञान का प्रसार किया । शिक्षा से उनकी आंतरिक शक्ति जागरूक हो गई थी और उन्होंने ईश्वर को पा लिया था इसलिए शिक्षित बनो अंधविश्वासी नहीं ।
मिताली शर्मा